भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
गौरैया / अखिलेश श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
कौवों ने सारा
तन्दुल चुग लिया है
मटके के तली तक का पानी
हथिया लिया है पत्थरबाज़ी करके!
चिड़ियों ने निराशा में
घोसलों से निकलना छोड़ दिया है
खोहों के मुहांने पर
तिनके की ओट डाल पर्दादारी की प्रथा
ज़ोर पकड़ रही है!
आकाश को चीलों का बताया जा रहा है
और उनके लिये नियत है उतना ही आकाश
जितना दो पत्तियों के बीच
दरख्त के एक शाख़ से दिखता है!
नई बात यह है कि
कांव कांव को
जंगल ने अपना राष्ट्रीय गीत मान लिया है
कोयल की कूँक को माना गया है
एक डायन की आवाज़!
और अब दरख्तों की कहानी सुनिए
एक गौरैया की ग़रदन
अपनी ही शाख के
एक धारदार पत्ती ने रेत दी है!