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घर / सुनीता जैन
Kavita Kosh से
तुम जब यहाँ थे
पर मेरे नहीं थे
दिन गुजरते थे बड़ी मुश्किल से।
अब तुम यहाँ नहीं
सिर्फ तुम्हारा दर्द है
दिन गुजरते हैं बड़ी मुश्किल से।
पर तब और अब में-
कुछ फर्क तो है ही-
तब लगता था कि
बालों से खींची जा रही हूँ
कि जमीन नहीं पैरों तले
कि टूट तो गई हूँ पेड़ से
पर घर नहीं मेरा-
न नभ, न धरा, न हवा
अब,
बाल लहराते रहते हैं पीठ पर
पैरों की पकड़ मजबूत हैं
और घर-
कितनी सम्भावनाएँ हैं
सोचो तो जरा-
कुआँ, नहर, खाई, खेत, झाड़ी
या चोंच पक्षी की?