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घर / सुनील कुमार शर्मा
Kavita Kosh से
बेजान नहीं होते घर
इनको भी नज़र लगती है,
टूट जाते हैं,
बिखर जाते हैं,
लुट जाते हैं घर
क्या नहीं होता घरों के साथ
जल जाते हैं,
नहीं तो जलाये जाते हैं घर
होते हैं जब सपनों में ये,
खिलखिलाते हैं,
प्रेम की बगिया भी
उगाते हैं घर
घरों के साथ क्या-क्या होने लगा है
आयी थी ख़बर
घरों का भी दम घुटने लगा है
जब से उगने लगे हैं, घरों के ऊपर घर
घर, दीवारों के संग बतियाते हैं
कि आसां नहीं है घर को बनाना घर
ख़ाली मकानों को मत कह देना घर
ज़िन्दगी निकल ही जाती है
बनाने में घर
समझिये जनाब
घरों की भाषा है, बातें हैं
घरों पर बात करना हो तो
पूछना उनसे,
होते हैं जो बेघर॥