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घास / अग्निशेखर
Kavita Kosh से
हर तरफ़
आदमी से ऊँची घास थी
घनी और आपस में गुँथी हुई
वहीं कहीं थी हमारी पगडंडी
जिसे हम खोज रहे थे
अंधेरा था
मालूम नहीं पड़ रहे थे पैर
कहाँ उलझ रहे हैं
हमें पहुँचना था अपनों के पास
फड़फड़ा रहा था दिल
सन्नाटे में झूम रही थी घास
उन्हीं कुछ लम्हों से बचाना था
हमें अपना इतिहास