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घृणा / विमल राजस्थानी

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यह जग विचित्रताओं का भंडार, कोश छल-बल का
कैसे थाह मिले लहरों पर रह कर जल के तल का
यहीं कभी अमृत बरसा तो विष का घट भी छलका
चर्चाओं का विषम जाल लो फैला हल्का-हल्का

वनमाली-आशा का प्रेम न जग ने समझा-जाना
नहीं जगत् ने शुद्ध प्रेम की आत्मा को पहचाना
धीरे-धीरे बात चतुर्दिक पसरी, फैली, फूली
था चर्चित संबंध, बुन रहा था जग ताना-बाना

सेवा, त्याग महत्त्वहीन हो गये, गरल अपयश का
देख फैलता चहुँ दिशि, दोनों का अन्तरतम सिसका
वनमाली औ’ आशा पर तो मानो गाज गिरी थी
वनमाली की पगड़ी उछली, आँचल भी तो खिसका

यह कैसा है न्याय विधाता! यह प्रतिदान विकट है
सेवा का यह मोल घिनौना, नहीं सूझता तट है
ईसा को मिलता सलीब, मंसूर मृत्यु को चूमे
है कृतघ्न संसार, नाचती नियति, थिरकता नट है

जिनका यौवन, जीवन, तन, मन सेवा को अर्पित था
रोम-रोम जग के कल्याण-भाव से अभिसिंचित था
जिनने निजी सुखों की ओर न क्षण भर को देखा था
उनके पावन संबंधों ने जग को किया भ्रमित था

कोमल हृदयों को ये बातें वेध-वेध जाती थीं
पर, सेवा-कल्याण-भावना उमड़-उमड़ आती थी
सोचा-इन कृतघ्न मनुजों से तो तरु-तृण अच्छे हैं
मानव की गति-मति उनकी मति समझ नहीं पाती थी

जिनमा मन उदार होता है, उर-दर्पण उज्ज्वल है
जिनका जीवन गंगा-जल-सा ही पवित्र, सुविमल है
उन पर कीचड़ डाल जगत् खुद को काला करता है
किन्तु, मनुज देवता नहीं, वह भी दुर्बल-निर्बल है