चंदन की सुगंध सा सात्विक तुम्हारा स्मरण / ईहातीत क्षण / मृदुल कीर्ति
नास्ति के वीराने में,
तुम ही तो आस्ति का आलोक और स्पंदन हो..
मैं अपनों में अपरिचिता ,
तुम अपरिचियों में अपनापन हो.
इस अनाहत मौन के प्रसार में ,
निः शब्द शब्द स्पंदन हो.
अराजक विश्व में,
समभाव धर्म के हे सत्ता पुरूष !
तुम कर्म चक्र प्रवर्तन हो.
सत को साक्षात कर ,
अपने बंध और मोक्ष का स्वामी ,
और मानवीयकरण हो.
तुम मेरी चेतना का उदात्तीकरण हो,
प्रशस्तीकरण व् उर्धविकरण हो.
मृण्मय के तामस में चिन्मय का दिया जले,
वह दिव्य स्नेह संवरण हो.
संवेग और समत्व के शखर पर,
आरूढ़ मोक्ष के सिद्धाचल का ,
आरोहण हो.
आस्थावान चित्त से प्रार्थित,
मेरी प्रार्थना का मूल वंदन हो.
सर्वत्र भटक कर लौट आने वाला ,
कल्याणक पुद्गल मुक्तिकरण हो.
अनाहत और अक्षत मेरे अस्तित्व की धारा का,
तुम दिव्य दिशायन हो.
हम एक दूसरे को साक्षात व् पारदर्शी हो सकें ,
वह दैहिक आवरण हो .
अब मैं स्वयम ही चंदन गंध कुटी हूँ,
जब चंदन की सुगंध सा सात्विक तुम्हारा स्मरण हो.