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चाहती हूँ / संतोष श्रीवास्तव

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चाहती हूँ
बेखुदी में डूबकर
रिवाजों का मरसिया गाऊँ
कतरा कतरा
जिन्हें निभाते हुए
अक्सर टूट जाते हैं
अंतस के बावले सपनों के किले

चाहती हूँ
अपने हिस्से की धूप ,बारिश
और बिजलियाँ
आसमान के ताख पर रख
धरती में खुद को रोप दूँ
ताकि उगे फसलें
दबे,कुचले बीजों से जुदा
भरपूर जिंदगी के
खुशनुमा वक्त की
झीलों पर बादलों की परछाईं
कंकर उछाले जाने पर न थरथराए
न उठे फिर पीर परत दर परत
 
चाहती हूँ
नफरत के जरासीम की जड़ें
चाणक्य बन खत्म कर दूँ
समा जाऊँ प्रीत बन
दुनिया के ओर-छोर