भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

छतों से / पवन करण

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हमारी गीली कमीज़ें
सूखकर जब उठीं
छतों से उजास लेकर उठीं
हमारी पापड़-बड़ियाँ

धूप खाकर जब हटीं
छतों से स्वाद लेकर हटीं
हमारी सलाई जोड़ियाँ
सम्भलकर जब उतरीं

छतों से उम्मीद सम्भाले उतरीं
हमारी उदास चप्पलें
ऊबकर जब लौटीं
छतों से धूल लिए लौटीं