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जब हिलते हैं पेड़ / सुरेन्द्र रघुवंशी

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एक पैर पर खड़े होकर दिन-रात जागते हैं पेड़
वे रेंगते हैं धरती के भीतर अपनी जड़ों से
दौड़ते हैं बून्द-बून्द पानी के पीछे
और ऊपर आकाश से थमे रहने की अपील करते हैं

सोते नहीं हैं पेड़ कभी
कि हारे-थके पक्षी लौट रहे हैं उड़ान से
जिनके लिए पेड़ों के पास मज़बूत कन्धे हैं

पेड़ अनगिनित आँखों से देखते समय की क्रूरता
और धिक्कार में झरा देते हैं पीली पत्तियाँ

वे अपने फूल, फलों और छाँव तक
सबको पहुँचने की आज़ादी देते हैं
और इसीलिए खड़े हैं खुले आसमान के नीचे

पतझड़ में खड़े रहते हैं दिगम्बर और सूखे
पर समन्दर से पानी माँगने नहीं जाते
हाँ, अपने स्वाभाविक हक़ के लिए
वे निस्संकोच ललकारते हैं बादलों को

जब हिलती है धरती
तो सबसे पहले काँपकर आगाह कर देते हैं पेड़
और जब हिलते हुए झुकते हैं पेड़ एक कोण से ज़्यादा
तब आ जाता है भूकम्प