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जवाब चाहिए / व्लदीमिर मयकोव्स्की

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युद्ध के बज उठे हैं नगाड़े ।
ज़िन्दा लोगों में घोंपे जाने के लिए
पुकार रहे हैं हथियार ।

हर देश से
गुलाम के बाद गुलाम
निशाना बनाया जा रहा है संगीनों का ।

किसलिए
काँप रही है धरती
भूखी
नंगी ?
भाप की तरह उठ रहा है ख़ून मानवता का
मात्र इसलिए
कि कहीं कोई
कब्ज़ा कर सके अल्बानिया पर ।
इनसानों के झुण्डों का सम्मिलित क्रोध
गिर रहा है प्रहार पर प्रहार करते हुए दुनिया पर
मात्र इसलिए
कि बिना कर चुकाए वोस्फ़ोरस से गुज़र सकें
जहाज़ किसी के ।

वह दिन दूर नहीं
जब दुनिया के पास बच नहीं सकेगी
एक भी पसली सही सलामत ।
निकाल डालेंगे आत्मा को बाहर
और कुचल डालेंगे
मात्र इसलिए
कि कोई समेट ले अपने हाथों मेसोपोटेमिया को !
किसके नाम पर
चरमराता भद्दा जूता रौन्द रहा है धरती को ?
कौन है लड़ाइयों के आकाश पर —
आज़ादी ?
ख़ुदा ?
पैसा ?
अपनी जान न्योछावर करने वालो,
कब दे मारोगे तुम उनके मुँह पर ये सवाल —
लड़ रहे हैं हम
किसलिए ?

(1917)
मूल रूसी से अनुवाद : वरयाम सिंह