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ज़िद्दी घास / गरिमा सक्सेना
Kavita Kosh से
सीमेंटेड फर्शों पर उगती
दीखी ज़िद्दी घास
धूल फाँकती हुई यहाँ
पगडंडी पड़ी उदास
पत्तों पर जल के फव्वारे
मगर जड़ें हैं प्यासी
दीमक जैसी चाट रही है
मन को एक उदासी
बिना जड़ों तक पोषण पहुँचे
होगा कहाँ विकास
बिन गहराई पाये चाहें
ऊँचाई को पाना
नहीं जानते मोल नींव का
चाहें मंज़िल छाना
हुए स्वकेंद्रित नाते
सिकुड़ा अपनेपन का व्यास