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ज़िन्दगी / रामकृष्ण पांडेय
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बाल तो पहले ही झड़ गए थे
फिर नज़रें कमज़ोर हुईं
और थकने लगा शरीर
भाई रामआसरे
क्या बताएँ
कितना मुश्किल है
मन के ज़ोर से
ज़िन्दगी को थामे रहना
भारी तूफ़ान में जैसे
खड़ा रहता है बूढ़ा पेड़
अपनी जड़ों से
मिट्टी को जकड़े हुए
ज़िन्दगी है
कि रेत की तरह
निकली जा रही है
अपनी मुट्ठी से
पर, कम नहीं होता है
मुट्ठी का ज़ोर