भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जांता / कमलेश्वर साहू
Kavita Kosh से
तब चक्की नहीं थी
जांता था
जैसे मिक्सर ग्राइन्डर से पहले
सिलबट्टा
तब हर घर में
कोई न कोई कोना
होता था सुरक्षित
इस जांते के लिये
तब बहुएं
इतनी नाजुक नहीं होती थी
तब उनका सौन्दर्य
सौन्दर्य प्रसाधनों के इस्तेमाल से नहीं
श्रम से निखरता था।
रात के तीसरे पहर से ही
शुरू हो जाती थी उनकी दिनचर्या
और शुरूआत
जांता से
जब तक जागते घर भर के लोग
पीस चुकी होती
पूरे परिवार की रोटी के लिये आटा
उनके बच्चों की आधी नींद
बिस्तर में पूरी होती
और आधी
गेहूं पीस रही मां की
फैली हुई टांग पर सिर रखकर
और सुलाता
जांता चलने का संगीत
तब आटा पालीपैक में नहीं मिलता था
तब अपने आटे को शुद्ध
व पौष्टिक बताने वालों की
होड़ न थी
तब मुनाफा कमाने के तरीके न थे-
तब जांता था
चक्की नहीं !