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जाग्रत / सियाराम शरण गुप्त
Kavita Kosh से
देखा, - देख नहीं सकता कुछ,
अन्धकूप का है घेरा।
यहाँ कहाँ आ पड़ा हाय रे!
यह मैं दुर्विधि का प्रेरा?
व्यर्थ हुआ क्या साधन सारा?
सर्प - रज्जु का भी न सहारा,
भगवन, हा! यह कैसी कारा?
ऎं यह क्या! - मैं खड़ा हो गया;
कहाँ गया वह भय मेरा
ओ जागृत वह स्वप्न मात्र था
पथ है खुला पड़ा तेरा!