जीवन-चर्या / नंद भारद्वाज
अभी नया नया ही आया हूँ
इस गली मोहल्ले में
कम ही लोगों से हो पाई है
दुआ-सलाम,
अक्सर बन्द ही तो रहते हैं
घरों के दरवाज़े,
उदास चेहरों पर
एक अनाम-सी चुप्पी -
हिदायत के बावजूद
बच्चे निकल जाते हैं दूर
गली के छोर तक,
उन्हें नहीं लगता कुछ भी नया
और अटपटा
अनजानेपन का भय
उन्हें नहीं रोक पाता
घर की चौहद्दी में !
पत्नी अक्सर पूछती है :
'कैसा है आस-पड़ौस
शहर की आबो-हवा -
हालात...?'
जब हम लौट रहे होते हैं
हाट-बाज़ार से ।
मेरे अबोलेपन से उकता कर
वह फिर बतियाने लगती है
अपने आप से -
'कितना मंहगा होता जा रहा है
जीने का सामान,
शायद इस बार भी
नहीं जा पाएंगे हम बच्चों के साथ
किसी नई उमंग की ओर !
कह रहा था कोई -
कल फिर रहेगा शहर में बन्द
शायद नहीं चलेंगी बसें
किसी भी मार्ग पर ...
मैं नहीं भेजूंगी बच्चों को स्कूल
ऐसे माहौल में !'
वह चलते ही में कर लिया करती है
ऐसे ही दैनिक फ़ैसले -
ऐसे ही बना लिया करती है
चिन्ता और दुविधा में अपना सन्तुलन
और तय कर लेती है
आगे का सिलसिला !
सिर्फ़ मैं ही नहीं जान पाता
इस जीवन-चर्या का सार,
बच्चे खुश हैं
अपनी बदलती दुनिया में,
और वह बनी रहती है
उन्हीं की इच्छाओं के पास,
वहीं से वह देख लिया करती है
हर असार में सार की संभावना !