भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जीवन स्त्रोत / अशोक शुभदर्शी
Kavita Kosh से
कोय नै जानै छै हमरोॅ बेचैनी
हम्में नदी छेकियै तेॅ की ?
हमरोॅ भी तेॅ जीवन होय छै
जेनां केॅ बाँधलोॅ जाय रहलोॅ छै
एक-एक करी केॅ सभ्भे नदी
हम्में डरै छियै हमरौ बाँधी देतै
हुनी आबी केॅ एक दिन
आपनोॅ लाव-लश्कर के साथें
तबेॅ हम्में केना केॅ बचवै ?
कोय बचाय वास्तें भी नै अइतै हमरा
हुनी सभ्भैं आपनोॅ स्वार्थ देखतै
हमरोॅ जीवन नै
जबेॅ कि हम्में खाली एक नदी नै छेकियै
हम्में छेकियै सिरिफ आदमी नै
पशु-पक्षी सब के जीवन -सोत ।
लागै छै, हम्में छेकियै एन्हों नदी
जेॅ बाँधलोॅ नै गेलोॅ छै
हम्में बचलोॅ छियै आभी तांय
जेॅ भी कारण सें, पता नै
हम्में बचेॅ सकबै कि नै
आगू भी
वहेॅ कारण सें
आबेॅ गड़ेॅ लागलोॅ छियै हम्में
बहुते निशानावाजोॅ के नजरोॅ में ।