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जीवन स्‍पन्दन / प्रेमरंजन अनिमेष

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अभी उस ओर
महसूस होता अभी इधर...

गर्भकुम्भ के भीतर
डग भर रहा नन्‍हा
चला रहा अपने पैर
शुरू हो चुका
जीवन के नए आगन्तुक का सफ़र

उत्‍सुक भविष्‍य
खोलना चाहता द्वार
दुनिया देखना चाहता
और दुनिया उसे

पगथलियों की यह थाप
आने वाले कल की दस्‍तक

जन्‍म सफल
हो जाता
जीवन धन्‍य
जननी का
सहते आगत सुख के
ये आघात

अहरह
प्रार्थना करती वह
जोड़े कर

ओ स्रष्‍टा ओ ईश्‍वर
हे शाश्‍वत हे नश्‍वर
इस नौनिहाल इस नए यात्री
हृदय के इस टुकड़े को
जीवन के पथ पर
कभी कहीं न लगे ठोकर...!