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डर / उषा राय
Kavita Kosh से
डर इनसान को
बचाता नहीं, भगाता है
कभी-कभी बड़ा डर
पीढ़ी-दर-पीढ़ी डराता है
जैसे दिए के बुझने का डर
या राज़ के खुलने का डर
वैसे जीवन भर ब्लैकमेल
होने से अच्छा है एक बार
लानत-मलामत सह लेना
चरित्र प्रमाणपत्र
असल ज़िन्दगी में नहीं
हलफ़नामे के काम आता है
डर वह करवा देता है
जो उसे नहीं करना चाहिए
डरता हुआ बच्चा झूला झूलता है
अचानक कूद जाता है झूले से
सिसकती लड़की ज़हर खाती है
नीम-अन्धेरे में शिशु को छोड़कर
डर इनसान को
बचाता नहीं, ग़ुलाम बनाता है
ग़ुलामों की तरह
मरने का मतलब
अगर धीरे-धीरे मरना है
तो डरने का मतलब भी
उनके हाथों मारा जाना ही होता है ।