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डर / रामस्वरूप किसान

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एक दिन
सपनै में
म्हैं मरग्यो

आंगणै बिचाळै पड़ी
म्हारी खोड़ रै च्यांरूमेर
आखौ कडूंबो
माथौ कूटै

घणौ ई डर लागै
पण बैरी सुपनौ
कोनी टूटै

इतराक में
म्हारै जनाजै में
सरीक होवण सारू
जम्योड़ी भीड़ में
एक मांगतोड़ै रो सिर
दिख्यौ म्हनै
अर सपनौ टूटग्यो ।