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डाक सुनो / रामनरेश पाठक
Kavita Kosh से
डाक सुनो, डाक
चाक चले, चाक
ताक चलो, ताक
डाक सुनो, डाक
...
वर्षा की ऋतु आती है
कपिश हरित हो उठता है
गाँव-धान और नगर-पान
सन्दर्भ यात्राओं पर चल देते हैं
चमकती आँखें, फड़कते होंठ
सधे अंग
रंग और रेखाएँ गढ़ने लगते हैं
एक नदी, एक महाकाव्य, एक संस्कृति
एक पूरी शताब्दी, एक पूरे वेद के
प्र-सव की पीड़ा
यहाँ, वहाँ और सारे में
इतिहास के पन्नों में और
काल की दैनन्दिनी में उग आती है
एक नयी सभ्यता
एक नए सूरज का जन्म होता है
शरद की ऋतू आती है
फिर हेमंत, फिर वसंत
और एक खुशनुमा-सा मौसम
अंगड़ाईयाँ लेता है
धूप उग आती है टहकार
नए जन्म सार्थक हो जाते हैं
...
डाक सुनो, डाक
चाक चले, चाक
ताक चलो, ताक
डाक सुनो, डाक