भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
तोहरोॅ बिन / नवीन निकुंज
Kavita Kosh से
ई साँझ की ऐलै, कि ऐलै उदासी
ढुढ़ै नजर छै
बस तोरहै तेॅ हर किरिन मेॅ
फूल के पत्ती सिनी
सौरभ-चमन मेॅ
वहाँ तोहें वहाँ-बस तोरोॅ झाँई
दिन लगै बस मृगतृष्णा
रात औघट-घाट
जिन्दगी रोॅ साँझ बेला
तोरोॅ जोहौं बाट-
आँख मेॅ सावन उतरै
याद ई तोरोॅ जरा-सा।