भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दरख़्त / महेश वर्मा
Kavita Kosh से
यह रात है
और पतझर की नींद में भी
हवा में घूमकर नीचे गिरते पत्ते हैं
यह वृक्ष का सपना नहीं है
उसकी नींद के पत्ते भी गिर रहे हैं अँधेरे में
इस तरह अँधेरे में कि अँधेरे का हिस्सा हैं
पत्ते की शक्ल का एक अँधेरा
बाहर के अँधेरे के भीतर गिर रहा है
अँधेरा कोई वृक्ष है
तो उसके भी पत्ते गिर रहे हैं रात में
रात खुद एक दरख़्त है ।