भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दरिंदे / मुकेश पोपली
Kavita Kosh से
मेरे घर के सामने
बने मंदिर की
ऊंची से ऊंची
छत पर
जहां लाल बल्बम जलता था
एक पंछी रहता था
सुबह-सवेरे
मंदिर के अहाते में आकर
गूटर-गूं करता खाता था
भक्तोंक का फेंका
अनाज का दाना
और पाता था तृप्ति
मंदिर के कोने में रखे
मटके के नीचे
भरे बर्तन से जिसमें
टप-टप पानी गिरता था
एक दिन दूर बनी
मस्जिद से उड़कर
आया उसके पास
उसका दोस्ता
बोला - मित्र !
कल रात मस्जिद की दीवारें
ढहा दी गई
तुम्हा रे यहां शरण मिल जाएगी
यह सोच कर आया हूँ
साथ में बीवी और
दोनों बच्चों को भी लाया हूँ
रहने लगे दोनों साथ-साथ
अगले ही दिन
मंदिर की वो ऊंची छत
नीचे आ गिरी
और दब गया
मलबे के नीचे
दोनों दोस्तों का
भरा-पूरा परिवार
और लिख गया
अपने खून से
इंसानी दरिंदों की
खूनी कहानी ।