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दीवारों के बीच / केशव
Kavita Kosh से
ज़िंन्दगी और मौत के बीच
लुढ़कते ये पल
कभी अँधकार में लिपटे
कभी धुआँते
किस ओर
आखिर किस ओर लिये जा रहे हैं
अपने पीछे धुएँ की लकीर छोड़
सिर्फ मुस्करा भर देने से
होता नहीं दूर
भीतर भरा धुआँ और अँधकार
नियति मानकर दुख को
डूबे रहना आकंठ प्रार्थनाओं में
नहीं ले जाता धुँध के पार
लौटकर आओ किसी भी यात्रा से
घर की दीवारें लगती हैं
पहले से कहीं अधिक
सूनी और निष्प्राण
घर के लोग एक थकान में डूबे हुए
इस सबके वैसा होने से ऊबे हुए
कहाँ हैं
कहाँ हैं वे अर्थ
हर यात्रा से लौटते हुए जिनसे
भर लाया था अपनी जेबें
जिनसे लिखना चाहता था
घर की दीवारों पर एक गीत
हवा में घोलना चाहता था एक गँध
और साँसों में एक लय.