दुःख / संगीता शर्मा अधिकारी
एक दुख थकाकर 
कमर तोड़ देने वाला होता है 
जो बहुत तेजी से आता है 
और फिर सब कुछ हराकर 
उतनी ही तेजी से चला जाता।
एक दुख व्यक्ति को 
धीरे-धीरे सालता है 
जिसमें वो भीतर ही भीतर 
घुटता चला जाता है।
और आखिर में एक दिन 
बहुत असहाय और बदहवास होकर 
तोड़ देता है दम।
एक दुख निर्भर करता है
व्यक्ति के उसके साथ डील करने पर।
कोई उसको डिल करते-करते 
दम तोड़ देता है 
तो कोई दम तोड़ 
माहौल को तोड़ते हुए 
डील करना सीख जाता है।
एक दुख बहुत तेज़ 
बुखार की तरह 
तेजी से आता है 
और सब कुछ नष्ट-भ्रष्ट कर 
चला जाता है।
एक दुख डेंगू के बुखार सा 
शरीर से प्लेटलेट्स कम करता हुआ 
इम्यूनिटी वीक कर देता है 
शरीर की सारी।
बड़ी से बड़ी महामारी भी 
टेक देती है उसके आगे घुटने।
एक दुख कैंसर जैसी 
लाइलाज बीमारी जितना 
भयावह नासूर बन 
चुभता रहता है जीवन पर्यंत।
बावजूद इस सब के 
दुख मनुष्य को मारता नहीं 
वो उसे मांझने के साथ-साथ 
सीखाता है जिंदगी को जिंदा बनाना 
और जिंदादिली के साथ जीते जाना।
यकीनन दुख बहुत कुछ दे जाता है 
अपने साथ जिंदा रहने 
और हार कर भी जीत जाने को।
	
	