भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दुर्गा की नानी / श्रीप्रसाद

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

एक बार मिल गईं राह में
दुर्गा की नानी
सिर पर रखे हुए थीं गागर
जिसमें था पानी

मैं बोला, क्या है यह सिर पर
क्या है गागर में
हँसकर बोलीं-रे बड़नक्के
कर मत शैतानी

नहीं, बड़ी हैं आप करूँगा
शैतानी मैं क्यों
मैंने ज्योंही कहा, उन्होंने
तुरत छड़ी तानी

तब झुक करे पाँव छू लिए
मैंने नानी के
और कहीं-आपको हो रही
होगी हैरानी

आप कहें तो घर पहुँचा दूँ
सिर पर रख करके
ठीक नहीं है, बोझ उठाए
मेरी ही नानी

तब नानी को हुआ भरोसा
चट गागर दे दी
लेकिन तभी कहीं से बिल्ली
आ चूहाखानी

राह काटकर गई कहीं को
नानी घबड़ाईं
बोलीं-जरा बैठ लो क्षणभर
फिर वे सुस्तानीं

मैंने कहा-अरे बेमतलब
हैं ऐसी बातें
पर वे क्यों विश्वास करें जो
करतीं मनमानी

फिर सुस्ताकर चले वहाँ से
उनका घर आया
गागर रखकर चला देखता
खेतों को धानी

दुर्गा की नानी, नानी हैं
हम सब बच्चों की
हँसकर कहतीं-तुमको काटे
अब चुहिया कानी

उमर हुई है सौ की, फिर भी
मेहनत करती हैं
आदर देतीं इन्हें गाँव के
राजा की रानी

घुलीमिली रहतीं बच्चों में
ये काफी ज्यादा
उनसे सुनते गीत रोज हम
जया और जानी

दुर्गा ही क्या, सारे बच्चे
हैं उनके नाती
फिर भी कहलाती हैं केवल
दुर्गा की नानी।