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दुवार / नवीन ठाकुर ‘संधि’
Kavita Kosh से
चाहै छै हमरोॅ दिल मिलै लेॅ,
मतुर, तोरोॅ दिल नै चाहेॅ खेलै लेॅ।
हमरोॅ दिल ललचै, भिनकै छै अकेलोॅ,
तोरोॅ दिल बुझावै छै-अघैलोॅ।
तनियों-टा-तेॅ दिलोॅ रोॅ दुआर खोलोॅ,
सताय, तड़पाय केॅ कि मिलै छोॅ बोलोॅ।
प्रेम करो बहती गंगा में दिल चाहै छै नहाय-लेॅ। ,
है दिल तबेॅ पछतैतोॅ जब्बे गंगा सुखतै,
फेरू बरफ गंगाँ नै पिघलातै।
खाली गंगा रोॅ रेत पैतै,
चूआँड़ी खोदी / छीटी कत्ते नहैतै?
आभियो दिलकेॅ समझाय बुझाय लेॅ।
दिल केॅ दिल ने खूब पुकारै छै,
मतुर वैं काँही आरो निहारै छै।
सोचोॅ सब दिन एक्केॅ नै रहै छै,
सुख-दुःख सब्भै काटै आरो सहै छै।
सीखोॅ तोहेॅ "संधि" प्रेम में पलै लेॅ।