दू फाँक / प्रवीण काश्यप
करेज दू फाँक
अर्धनारीश्वरक नारी-पुरूष फराक!
चैतन्यक परतंत्रता शारीरिक कोष
दूर रहला सँ प्रेम घटत वा बढ़त
नहि बूझल!
मुदा विकलता बढ़ि गेल।
हिंसक बुझना जाइत अछि
सामाजिक बंधन, जड़ समाज;
हमर भावना एहि चिरकालिक
अन्हार गुफ्फ से आन्हर लोकक बीच
आँखिक इजोत बनत?
नहि बूझल
मुदा हमरा जनैत
एहि बौक नाटकक नेपथ्य में
मात्र हमरे स्वर टा बाँचल अछि!
विकट स्थिति, करेज दू फाँक!
लोकाचारक अँचार चटने
भूख तऽ नहि मेटायत!
तृष्णा बढ़त, पियास बढ़त
मुदा मैथिल समाज में आर की चाही?
मात्र चटकार! नून तेल मरचाइ!
परंच लोक कोना बुझताह
एहि मरचाइ-जनित अग्नि में
कतेक भावनाक हविष् पड़ि रहल अछि!
सोझ साझ प्रेम भावना
शुभ्र-शाभ्र प्रेम भावना!
तेँ बाँचि रहल अछि हृदय मे
मात्र विष!
एक-दोसर केँ जरेबा लेल, गलेबा लेल!
तेँ ने मंडनक धरती पर मात्र मंडन-खंडन
बातक खण्ड, माँछक खण्ड, घरक खण्ड,
हृदयक खंड, धरतीक खंड!
करेज दू खंड !
खंड-खंड जीवन
मात्र देखाबा-प्रपंच
कौलिक संस्कार, नैष्ठिक आचरणक ढ़ोंग
अपन दंत-नख नुकौने गाय बनल सियार।
मात्र प्रतिरोध स्वर
कोनो सहयोग नहि
आरोह केवल अवरोध
तेँ अवरोह!
कोनो मर्म नहि, कोनो मात्सर्य नहि
ई करू ओ छोडू
मात्र उपदेश, आदेश आ वचन।
तेँ ने एतेक अवहेलना
मुदा हम की कहू, कतेक कहू
आध हृदय सँ!
करेज तऽ हमरो भेल अछि दू फाँक!