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देवी / रश्मि भारद्वाज

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दशमी की अन्धियारी रात को
उठती थी देवी की सवारी
दुर्गा अस्थान से
नौ दिनों की निरन्तर पूजा अर्चना के बाद
ढम-ढम बज उठते थे ढोल
चीरते दूर तक फैले सन्नाटे को
विशाल प्रतिमा चौधरी के उदार राजकोष से निर्मित
चुँधियाती थी आँखें अपने दिव्य सौन्दर्य से
माहिषासुर मर्दिनी, लाल आँखों वाली माँ
भय और श्रद्धा से झुके सिर
जल में प्रवाहित होने से पहले
अन्तिम विदा कहने
खोईंछे में दूभी- धान भरने
आती थी अपनी सवारी के साथ चौधरी की हवेली पर

घूँघट में रहने वाली चिन्तामनपुर वाली
आम औरत नहीं थी
जो मुँह उठाए देख आती हैं मेला-ठेला
खा आती हैं जलेबी, और भर आती है कलाइयाँ दर्जन भर चूड़ियों से
वह प्रतिष्ठापित थीं चौधरी की हवेली में
उसके भार से लदी, झुकी
वाक्य पूरा होने से पहले देख लेती थी कनखियों से चौधरी का चेहरा
पढ़ लेती थीं कि स्वीकृति के चिन्ह हैं या नहीं
उस एक रात वह भी बन जाती थीं देवी

खुल उठते थे चटाक-चटाक सभी देहबन्ध
खुले केश, लाल नेत्र अँगारों से दहकते
जैसे अब तक हृदय में समेट रखी
सभी कामनाओं को एक साथ धधका दिया हो
और उसके अंगारे चमक रहें हों आँखों में
दह –दह
देखो मत, जल जाओगे
सिर झुका बैठ जाता था सारा घर
चरणों पर लोट रहे होते चौधरी
क्षमा माँ ! क्षमा !
मुझ नराधम को दे दो क्षमा
क्षमा कि तुम्हें मैं नहीं दे सका सन्तान
और बांझ कही जाती हो तुम
क्षमा कि विवाह के दस सालों बाद भी
नहीं जान पाई तुम देह सुख
क्षमा कि जड़ दिया तुम्हें तालों में
जहाँ हवा भी नहीं आती मुझसे पूछे बिना

चट चट चटाक पड़ती रहती थी लातें-थप्पड़
और भाव विहल, लीन मग्न चौधरी
झटके से आकर पकड़ता था गबरू जवान ढोलिया
जो जानता था देवी उतारने का मन्त्र
मुस्कुरा उठती थी देवी
पान, फूल, इत्र, मिष्ठान
धूप, रूप, स्वाद , गन्ध
खुल जाते थे तन और मन के बन्द पड़े रेशे-रेशे

दशमी की उस गहन रात्रि में
दुर्गा अस्थान से उठ कर आती थीं देवी
साल भर के लिए जल में विलय होने से पहले
दे जाती थी किसी को जीवन
एक रात का