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दो जीवन / केदारनाथ अग्रवाल
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कली निगाह में पली,
हिली-डिली कपोल में
हृदय-प्रदेश में खिली,
तुली हँसी की तोल में ।
गरम गरम हवा चली,
अशांत रेत से भरी,
हरेक पाँखुरी जली,
कली न जी सकी, मरी ।
बबूल आप ही पला,
हवा से वह न डर सका,
कठोर ज़िन्दगी चला,
न जल सका, न मर सका ।