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दो यात्राएँ / विष्णु नागर
Kavita Kosh से
मैं एक यात्रा में
एक और यात्रा करता हूं
एक जगह से एक और जगह पहुंच जाता हूं
कुछ और लोगों से मिलकर कुछ और लोगों से मिलने चला जाता हूं
कुछ और पहाड़ों, कुछ और नदियों को देख कुछ और ही पहाड़ों
कुछ और नदियों पर मुग्ध हो जाता हूं
इस यात्रा में मेरा कुछ खर्च नहीं होता
जबकि वहां मेरा कोई मेजबान भी नहीं होता
इस यात्रा में मेरा कोई सामान नहीं खोता
पसीना बिल्कुल नहीं आता
न भूख लगती है, न प्यास
कितनी ही दूर चला जाऊं
थकने का नाम नहीं लेता
मैं दो यात्राओं से लौटता हूं
और सिर्फ एक का टिकट फाड़कर फेंकता हूं.