दो रंग / दीप्ति पाण्डेय
वैशाली की वे अनगिन गणिकाएँ
जो यौवनानंत तक रहीं सर्वभोग्या
जिनकी देह पर रह गए थे
पुरुष के तम रूपी 'प' से जन्मे पशुत्व के
रक्तरंजित लाल थक्के
अंदरूनी चोटों से छिटके - नीले धब्बे
उनके जीवन के अनुगामी बन
सदा रहे सहगामी - दो रंग
ये चटख रंग फीके न हुए
वरन शनै: शनै:
और भी गहरे, जामुनी, सहतूती, और अमिट होते गए
देह की पर्यायवाची बनी ये स्त्रियाँ
कभी छोडी नहीं जाती
जिन पुरुषों से भोगी जाती जी भर
उन्ही की पतिव्रताओं से अछूत बन धिक्कारी जाती
लेकिन सुना है
आना पड़ता है एक दिन इनके द्वार
अपने आँचल को फैलाकर माँगनी होती है मिट्टी, काली पूजा के लिए
वही मिट्टी जो सनी है इनके रक्त और अजन्मे भ्रूण के अवशेषों से
घरों को तोड़ने का लांछन माथे पर सजाएँ
ये अभागी द्विवर्णी गणिकाएँ
यौवनानंत के काल खंड में
चर्म और माँस के विलग होते ही
अपनी ही देह के अवशेष से बोझिल
बूढ़ी गाय का पर्याय बन
भटकती रहती हैं जीवनानंत तक
उन्ही दो रंगो के साथ
जो जन्मे थे-
पुरुष के 'प' से जन्मे पशुत्व से