निरपराध लोग / प्रेमचन्द गांधी
एक दिन वे उठा लिये जाते हैं या
बुला लिये जाते हैं
तहकीकात के नाम पर-
फिर कभी वापस नहीं आते
कश्मीर की वादियों से
तेलंगाना के जंगलों तक
कच्छ के रण से
मेघालय की नदियों तक
यह रोज की कहानी है
पिता, भाई, दोस्त और रिश्तेदार
थक जाते हैं खोजते
मां, पत्नी, बहन और बच्चे
तस्वीर लिए भटकते हैं
पता नहीं तंत्र के कितने खिड़की-दरवाजों पर
देते बार-बार दस्तक
बस अड्डे, रेलवे स्टेशन और चौक-मोहल्लों के
छान आते हैं ओर-छोर
हर किसी को तस्वीर दिखाते हुए पूछते हैं वे
इसे कहीं देखा है आपने...
और फिर रुलाई में बुदबुदाते हैं
खोए हुए शख्स से रिश्ता
’अब्बा हैं मेरे... बेटा है... इस बच्ची का बाप है’
लेकिन कहीं कोई सुराग नहीं मिलता
वे किसी जेल में बंद नहीं मिलते
न किसी अस्पताल में भर्ती
न कब्रिस्तान में उनकी कब्र मिलती है
न श्मशान में राख और अंतिम अवशेष
जहां कहीं दिखता है उनका पहना हुआ
आखिरी लिबास का रंग
या उनकी कद काठी वाला कोई
घर वाले दौड़ पड़ते हैं उम्मीद के अश्वारोही बनकर
और उसे न पाकर मायूसी के साथ
याद करते हैं किसी अज्ञात ईश्वर को
वे सहते हैं अकल्पनीय यंत्रणाएं
वे अपने को निरपराध बताते कहते थक जाते हैं
कुछ भी कबूल करना या न करना
हर रास्ता उन्हें
मौत की ओर ले जाता है
पेट्रोल से भर दिये जाते हैं उनके जिस्म
जैसे तैरना नहीं आने वाले के पेट में
भर जाता है पानी
हाथ-पांव बांध लटका दिये जाते हैं कहीं
जैसे जंगल में शिकारी लटकाते हैं
पकाने के लिए कोई परिंदा या जानवर
मिर्च, पेट्रोल और डण्डे के अलावा
पता नहीं क्या-कुछ भर दिया जाता है उनके गुप्तांगों में
मिर्च घुले पानी से नहलाया जाता है उन्हें
तो याद आ जाता है उन्हें सब्जी के हाथ लगी
आंखों की छुअन का मामूली अहसास
पूरे बदन पर पेट्रोल डालकर
माचिस दिखाई जाती है उन्हें
तो याद आ जाते हैं उन्हें
सड़को पर जलते हुए वाहन
यातनाओं का यह सिलसिला जारी रहता है
उनकी देह में प्राण रहने तक
उनकी लाश बिना भेदभाव के
जला दी जाती है या दफना दी जाती है
सेना-पुलिस कहती है
हमने तो इस शख्स को
कभी देखा तक नहीं
ना जाने ऐसे कितने निरपराध लोगों के
लहू से सने हैं उनके हाथ, हथियार और ठिकाने
जिनके परिजन-परिचित उन्हें ताउम्र
एक नज़र देखने को तरसते रह जाते हैं
जहां दफ्न होती हैं या जला दी जाती हैं
ऐसे निरपराध लोगों की लाशें
वहीं तो उगते हैं
प्रतिरोध के कंटीले झाड़.