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पतझड़ १९७६ / रमेश रंजक

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इस बरस बेताल है पतझड़
झर रहे पीले, मरे पत्ते
कहीं भी नहीं खड़-खड़ ?

हर तरफ़ गूँगे खड़े हैं पेड़
झाड़ियाँ सब, ऊन काटी भेड़

बस !
ज़रा-सा काँपता है धड़

दे रही ड्यूटी हवा मन मार
कई दिन से धूप है बीमार

देह दुर्बल
आँख में कीचड़

इस बरस बेताल है पतझड़