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पत्थर / राजीव रंजन
Kavita Kosh से
फूल खिलाने की आशा में
मैं पत्थरों को सींचता रहा।
पत्थर पर कब फूल खिले हैं,
जो अब खिलता।
उसे क्या पता जिस पानी ने
उसे सींचा है, वह
बादलों से नहीं बरसा,
बल्कि मेरी आँखों से झरा है।
पत्थर तो और पत्थर बन
हमारी मूर्खता पर हँसता रहा।
अब पत्थर को क्या पता
यह हमारी मूर्खता नहीं
बल्कि बेबसी थी, ढंूढ़ता
रहा, पर फूल खिलाने
वाली मिट्टी मुझे कहीं नहीं मिली।
दर्द, व्यथा धनीभूत हो
अन्तर में बरसे इतने
कि पानी वह आँखों
में उफन गया और
उसे हमारी पलकें रोकती
कैसे, तोड़ बाँध पलकों
का वह बाहर निकल
गया, उफनते पानी को
कौन समझाए, पलकों
को ’भाखड़ा नंगल’ कैसे
बनाएँ कि वह रोके आँसू
को तब तक, जब तक
पत्थर मिट्टी न बन जाए।