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परछाइयाँ / नीना सिन्हा
Kavita Kosh से
रेत की सहराओं में बुनती कहानियाँ
वही जो इबारत की तरह पन्नों पर
उतरती हैं
वह पहले मन में अंकुर की तरह पनपती
तुम्हारे
तुम अपने मन को जादुई शीशे की तरह
देखना
तुम्हारे चेहरे के सिवा
और
कितनीं परछाइयाँ डोलती हैं
कफ़स में घुलती आवाजें
इक और चेहरा तलाश लेती हैं
तुमने जो खेल की तरह रचा बुना
वहाँ भी तुम्हारी ध्वनि डोलती है
बेआवाज़ परिंदों के पर
तुम सैय्याद की तरह नहीं छूना
प्रेम में डूबे हुए लोग
दीन दुनिया से मरहूम होते हैं!