भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पागल / के० सच्चिदानंदन

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


पागलों की कोई जाति नहीं होती
न धर्म होता है
वे लिंग-भेद से भी परे होते हैं
उनका चाल-चलन अपना ही होता है
उनकी शुद्धता को जानना
बड़ा कठिन है।

पागलों की भाषा सपनों की भाषा नहीं
वह तो किसी दूसरे ही यथार्थ की भाषा
उनका प्रेम चांदनी है
जो पूर्णिमा में उमड़ता-बहता है।

जब वे ऊपर की ओर देखते हैं
तो ऐसे देवता लगते हैं
जिन्हें कभी सुना-गुना ही न हो
जब हमें लगता है कि
यूँ ही कंधे झटक रहे हैं वे
तो उड़ रहे होते हैं उस वक़्त वे
अदृश्य पंखों के साथ।

उनका विचार है कि
मक्खियों में आत्मा होती है
देवता टिड्डे बन कर हरी टांगों पर फुदकते हैं
कभी-कभी तो उन्हें वृक्षों से
रक्त टपकता दिखाई देता है
कभी-कभी गलियों में
शेर दहाड़ते दिखाई देते हैं।

कभी-कभी बिल्ली की आँखों में
स्वर्ग चमकता देखते हैं
इन कामों में तो वे हमारे जैसे ही हैं
फिर भी चींटियों के झुण्ड को गाते हुए
केवल वही सुन सकते हैं।

जब वे सहलाते हैं पवन को तो
धरती को धुरी पर घुमाते हुए
आंधी को पालतू बनाते हैं
जब वे पैरों को पटक कर चलते हैं तो
जापान के ज्वालामुखी को
फटने से बचा रहे होते हैं।

पागलों का काल भी दूसरा होता है
हमारी एक सदी
उनके लिए एक क्षण-भर होती है
बीस चुटकियाँ ही काफ़ी है उनके लिए
ईशा के पास पहुँचने के लिए
आठ चुटकियों में तो वे बुद्ध के पास पहुँच जाएंगे।

दिन भर में तो वे
आदिम विस्फोट में पहुँच जाएंगे
वे बेरोक चलते रहते हैं
क्योंकि धरती चलती रहती है

पागल
हमारे जैसे
पागल नहीं होते।

अनुवाद : डा० विनीता / सुभाष नीरव