भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पानी / नीरज दइया
Kavita Kosh से
खुशी मिलने ही वाली थी
वह खड़ी थी सामने बनकर-
एक लड़की!
उससे इजहार किया जा सकता था
अपनी बेबसी का
अपने अरमानों का भी
सब कुछ कहा जा सकता था
मगर खुशी
इतनी पहले कभी नहीं मिली थी
एकदम पागल कर देने वाली
दिल को जोर-जोर से धड़काने वाली
जोश, उत्साह, उमंग में लिपटी खुशी
प्यार में लिपटना चाहती थी।
प्यार था भीतर हमारे
फिर भी हम चाहते थे प्यार।
प्यार की प्यास में भी
मांगते हैं हम पानी!
मैंने भी मांगा
प्यार की जगह
खुशी से सिर्फ- पानी...
पानी!