पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / त्रयोदश सर्ग / पृष्ठ - ६
(29)
आँख और ऍंधोर
दिवाकर की भी हुई कृपा न।
भले ही वे हों किरण-कुबेर।
उसे दिन भी कर सका न दूर।
सामने जो था तम का ढेर॥1॥
ज्योति भी भागी तजकर संग।
दृगों पर हुआ देख ऍंधोर।
कौन किसका देता है साथ।
दिनों का जब होता है फेर॥2॥
(30)
नुकीली आँख
प्यारे के रंगों में रँगकर।
अगर बन गयी रँगीली हो।
क्या हुआ तो जो हो चंचल।
फबीली हो, फुरतीली हो॥1॥
चाहते हैं रस हो उसमें।
आँसुओं से वह गीली हो।
अगर है नोक-झोंक तो क्या।
भले ही आँख नुकीली हो॥2॥
(31)
नयहीन नयन
दिखाकर लोचन अपना लोच।
नहीं करते किसको आधीन।
किन्तु ऐसा है कौन कठोर।
कौन दृग-सा है दयाविहीन॥1॥
चुराता है चित को चुपचाप।
लिया करता है मन को छीन।
कलेजे में करता है छेद।
नयन कितना है नय से हीन॥2॥
(32)
ज्योतिविहीन दृग
उस दिवाकर को जिसका तेज।
दिया करता है परम प्रकाश।
उस दिवस को जो ले दिव-दीप्ति।
किया करता है तम का नाश॥1॥
उस कुमुद को जो है बहु कान्त।
कौमुदी जिसकी है द्युति पीन।
उन ग्रहों को जो हैं अति दिव्य।
क क्या ले दृग ज्योति-विहीन॥2॥
(33)
अंधी आँखें
कलेजों को देती है बेधा।
चलाकर तीखे-तीखे तीर।
छातियों को देती है छील।
किसलिए बन-बनकर बेपीर॥1॥
सितम करती है अंधाधुंधा।
तनिक भी नहीं लगाती देर।
किसलिए अंधी बनकर आँख।
मचाती है इतना अंधोर॥2॥
(34)
आनन्द
कंज का है दिनमणि से प्यारे।
चन्द्रमा है चकोर-चितचोर।
नवल घन श्यामल कान्ति विलोक।
नृत्य करने लगता है मोर॥1॥
पपीहा है स्वाती-अनुरक्त।
भ्रमर को है जलजात पसन्द।
वही करता है उससे प्रीति।
मिला जिसको जिससे आनन्द॥2॥
(35)
बड़ी-बड़ी आँखें
छोड़ सीधी सधी भली राहें।
जब बुरी राह में अड़ी आँखें।
बेकसों और बेगुनाहों पर।
बेतरह जब कड़ी पड़ी आँखें॥1॥
जब न सीधी रहीं बनी टेढ़ी।
लाड़ को छोड़कर लड़ी आँखें।
रह गयी कौन-सी बड़ाई तब।
क्यों न सोचे बड़ी-बड़ी आँखें॥2॥
(36)
आँख की कला
बहुत रस बरसाया है तो।
बनाया है मतवाला भी।
तनों में जीवन डाला है।
तो पिलाया विष-प्यारेला भी॥1॥
रखी जो मुँह की लाली तो।
बनाया है मुँह काला भी।
सुधारस जो है आँखों में।
तो हलाहल है, हाला भी॥2॥
(37)
बला की पुतली
रीझ को आँख अगर होती।
प्रेम होता न अगर अंधा।
लगन जो लाग में न आती।
समझ सकती अपना धंधा॥1॥
काम ले कई कलाओं से।
किसलिए तो कोई छलता।
बला की पुतली आँखों पर।
भला कैसे जादू चलता॥2॥
(38)
आँखों की मचल
कभी है पलक नहीं उठती।
कभी तिरछे चलती हैं वे।
बाँकपन कभी दिखाती हैं।
कभी लड़-भिड़ खलती हैं वे॥1॥
रंगतें बदला करती हैं।
छवि दिखाकर हैं छलती वे।
मचलनेवाली आँखें हैं।
किसलिए नहीं मचलतीं वे॥2॥