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पिता / जय चक्रवर्ती
Kavita Kosh से
घर को घर रखने मे
हर विष पीते रहे पिता
आँखों की गोलक में
संचित
पर्वत से सपने
सपनों में
सम्बन्धों की खिड़की
खोले अपने
रिश्तों की चादर जीवन-भर
सीते रहे पिता
अपनों के साये
पथ में
अनचीन्हें कभी हुए
कभी बिंधे
छाती में
चुपके अपने ही अंखुए
कई दर्द-आदमक़द
पल-पल जीते रहे पिता
फ़रमाइशें, जिदें,
जरूरतें
कंधों पर लादे
एक सृष्टि के लिए
वक्ष पर –
एक सृष्टि साधे
सबको भरते रहे
मगर खुद रीते रहे पिता