भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पुनर्नवा / विशाखा मुलमुले

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

घास नहीं डालती कभी हथियार
उग ही आती है पाकर रीती जमीन
कुछ घास की तरह ही होते है बुरे दिन
जड़े जमा ही लेते हैं अच्छे दिनों के बीच

काश ! मुस्कान भी होती घास की तरह जीवट
और मन होता काई समान
पाते ही सपाट चेहरा खिल उठती
हरियल मन उगता आद्र सतह में अनायास

प्रेम में होता है हृदय निश्छल , पनीला
उमगते है द्रव बिंदु सुबहों - शाम
वे गुजरने देते हैं अच्छे / बुरे दिनों के कदमों को
बनकर घास का विस्तृत मैदान

मरकर अमर होती है घास
जब चिड़िया करती उस से नीड़ निर्माण
पुनर्नवा हो जाती तब प्रीत
धरती से उठ रचती नव सोपान