भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पुरुष सूक्त / कविता वाचक्नवी
Kavita Kosh से
पुरुष - सूक्त
१.
श्यामवर्णी बादलों के
वर्तुलों में
झिलमिलाती धूप
फैली थी जहाँ
गाल पर
उन बादलों के स्पर्श
महके जा रहे।
२.
चेतना ने
ठहर
तलुवों से सुघर पद
छू लिए,
आँख में
विश्रांति का
आलोक - आकर
सो गया।
३.
साँझ नंगे पाँव
उतरी थी लजाती
सूर्य का आलोक अरुणिम
बस
तनिक-सा
छू गया।
४.
राग का रवि
शिखर पर जब
चमकता है
मूर्ति, छाया
मिल परस्पर
देर उतनी
एक लगते।
५.
थाम नौका ने
कलाई
लीं पकड़
हाथ से
पतवार दो
कैसे छुटें
और लहरों पर लहर में
खो गए
दोनों सहारे
ताकते ही रह गए
तटबंध सारे।