प्यासी रजनी / संगम मिश्र
प्रियतम प्रभात से मिलने को,
प्यासी रजनी हो रही विकल।
अन्तर की तृषा उग्र होकर,
तड़पाती रहती है प्रतिपल॥
करती विचार, वह कौन भला?
भूमण्डल पर मुझसे सुन्दर,
जिस पर मोहित हो भूल गया,
मुझ योगिनि को मेरा प्रियवर।
असमर्थ रही भर नहीं सकी,
प्रिय को अपने आलिङ्गन में।
जीवन में प्राप्त न हो पाया,
मिलने का कोई शुभ अवसर!
सम्भवतः रास नहीं आता,
प्रेयस को मेरा तन श्यामल।
अन्तर की तृषा उग्र होकर,
तड़पाती रहती है प्रतिपल॥
माथे पर चन्दा का टीका,
शाटिका सितारों से सज्जित।
सतरङ्गी सुमनों से निर्मित,
कञ्चुकी लाज पर आच्छादित।
तन को महकाते पुष्पसार,
सुरभित मनहर्य प्रसूनों के।
खिल रहा साँवला रङ्ग सुघर,
सारी उपमायें हैं लज्जित।
मन में उद्वेग जगाती हैं
शीतलक चन्द्रकिरणें चञ्चल।
अन्तर की तृषा उग्र होकर,
तड़पाती रहती है प्रतिपल॥
अन्तस् की तृष्णा है अतृप्त,
जन्मों से व्याकुल है तन मन।
युग युग से क्षणिक न हो पाया,
निर्दोष भुजाओं का बन्धन।
ज्यों ही प्रियतम से मिलने का,
नूतन संयोग प्रकट होता।
प्रिय को निज छल से हर लेती,
स्वर्णिम सुन्दरी उषा सौतन।
है प्रेम प्रतीक्षित जन्मों से,
अबतक प्रेमिल पथ पर अविचल।
अन्तर की तृषा उग्र होकर,
तड़पाती रहती है प्रतिपल॥
प्रियतम प्रभात से मिलने को,
प्यासी रजनी हो रही विकल।
अन्तर की तृषा उग्र होकर,
तड़पाती रहती है प्रतिपल॥