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प्यास / हरीशचन्द्र पाण्डे
Kavita Kosh से
काम करते-करते उसने कहा, ‘पानी’
धोती घुटने तक की
और एक बनियान
यही पहनावा बस
हल्के बदन काम जो हचक के होता है
उसने सूखे जबड़े से फिर कहा, ‘पानी’
पहले तो सटाकर अँजुरी फैलायी...
प्यास बुझी नहीं
फिर जग ही पकड़ लिया
और खाप खोलकर धार के नीचे लगा दी
सूखी धरती की तरह खुली थी खाप
बरसात की पहली झ़ी-सी गिरती रही धार
धार घटक-घटक कर चली जा रही थी
कंठ के नीचे
-सूखी गढ़ई में
गले की घटिका घटक-घटक के साथ
खिसक रही थी नीचे-ऊपर
एक आवाज़ थी और एक लय
और बनती-मिटती लहरें थीं त्वचा की
एक उपक्रम दृश्य-श्रव्य ऐसा
कि किसी की भी इच्छा हो जाए पानी पीने की
लेकिन कोई प्यास कहाँ से लाता
हर शख़्स कहाँ हो सकता है ऐसा प्यासा
हर पानी कहाँ पाता है ऐसी इज़्ज़त!