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प्रश्न / विमल राजस्थानी

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मैं पूछ रहा इन लोगों से
यह आजादी या बर्बादी ?

जो दुध धुली पोशाक पहन मंचों पर आते लोग-बाग
मैं पूछ रहा इनसे कि हमारे बीच जली यह कौन आग
यह आग कि जिसमें कोटि-कोटि-
ललनाओं का सिन्दुर जला
यह आग कि जिसमें कोटि-कोटि-
आँखों का झिलमिल नूर जला
लाखों बच्चे शत खंड हुए, लाखों की हुई हलाली है
यह स्वतंत्रता तो अद्भुत, यह आजादी बड़ी निराली है
नोआखाली के अश्रु-चिह्न तो
शेष अभी थे गालों पर
कुछ रंग चढ़ा ही था बिहार के
इन अल्हड़, मतवालों पर
उठती ज्वाला पर राख फेंक, तुम डरे हमारा क्रोध देख
तुम आतंकित हो उठे हमारा क्षण भर का प्रतिशोध देख
तुमने काली पट्टी दी बाँध
हमारी जलती आँखों पर
और ‘उधर हिंस्र पशु ‘रिजवी’ ने
तलवार घुमा दी लाखों पर
कट गयी शिखाएँ दीवों की, छा गया अनय का अंधकार
सिन्दूर कोटि ललनाओं का चीत्कार कर उठा बार-बार
ओ पत्थर दिल रखने वालों
ओ पद-लोलुपता के शिकार
तुम कैसे देख सके होना
संस्कृति-अंचल का तार-तार
अधिकार प्यार की बातों के बन्धन ने हमको रोक दिया
औ‘ उधर कोटि मासूमों को रिपु ने लपटों में झोंक दिया
पर अभी शेष फल-फूल बहुत,
क्या है कि कट गयी कुछ शाखें
उड़ पड़ने को उत्सुक पौरूष-
का पंछी फैलाये पाँखें
तुम भूल गये थे यह कि अभी जीवित ‘प्रताप’ के बेटे हैं
ये वीर ‘शिवा’ के लाल भाल से रहते कफन लपेटे हैं
अधिकार-प्यार की चर्चा का
पिंजरा अब रोक नहीं सकता
पौरूष का पंछी संस्कृति को-
लपटों में झोंक नहीं सकता
ओ क्षमाशील बनने वालों, ओ ‘हिदूं’ कहलाने वालो
ओ दया-धर्म का शंख फूँक, मंदिर में चिल्लाने वालो
यह मंत्र-पाठ का समय नहीं,
यह हुंकारों की वेला है
तुम इधर कोटि जूझार, उधर
वह नर-संहार अकेला है
दो सौंप देवता को ‘माला’, हाथों मे अभय कृपाण धरो
पोंछो संस्कृति के अश्रु, दबी दुखिया धरती के कष्ट हरो
क्या हुआ कि ‘रिजवी’ कैद हुआ,
हथियार शत्रुओं ने डाले
रिपु-रक्त चाहते हैं छलनी-
बन गयी छातियों के छाले

ओ सात समुंदर पार फुदकने-
वाले ‘मोइनयार जंग’
ओ उर्ध्व साँस ले रहे फरेबी-
मक्कारों के राष्ट्र-संघ
चेतो, सँभलो, इन सुप्त आर्य-वीरों ने ली है अँगड़ाई
युग-कवि ने फूँका शंख, रगों के लोहू में तेजी आयी
बलिदानों का प्रतिदान, सौंप दी
तुमने हँसकर बर्बादी
लेकिन हम अपने पौरूष के-
बल पर लायेंगे आजादी
वह आजादी, जिसके पद पर ‘राणा प्रताप’ लोटता फिरा
वह आजादी, जिसकी स्तुति गाती ‘भूषण’ की अमर गिरा
इन शेष शत्रुओं के लोहू से
खेलेंगे हम रक्त-फाग
रिपु शोणित पी बुझ जायेगी
जब महानाश की अनय आग
औ‘ जब मंचों पर आयेंगे, जाने-पहचाने लोग-बाग
मेजों पर मुक्के पटक अलापेंगे जिस क्षण अटपटा राग
तब हम हँस कर यह पूछेंगे-
जो तुमने पायी, वह थी
या हमने पायी है, यह है
बोलो, दोनों में किसे पुकारोगे तुम सच्ची आजादी ?