प्रेम / कल्पना मिश्रा
उस पेड़ को जब काटा गया
वो बिलख बिलख कर रोया
उसके जैसे कई रोए
ये पेड़ सिर्फ पक्षियों के घर न थे
उन प्रेमियों के भी घोसले थे
जो पूरी तरह सँवर नहीं पाए
अब वो रोज बोता है एक नया बीज
सेता है दरख्तों को
चिपक जाता है कटते हुए पेड़ो से
अब वह सच में प्रेम करता है
वो तेंदुपत्ता बीनने जाती थी
हर साल घने जंगलो में
वो भी आता था।
महुए और तेंदु की मिली जुली महक
से सराबोर था उनका प्यार
अब वहाँ लगने वाला है
इस्पात संयंत्र
अब प्रेम भी कोमलता त्याग रहा है
होगा इस्पाती
वो और कुछ भी हो
पर प्रेम न होगा ।
बुढ़ा तालाब के एकांत में
उसने पहनाई थी अंगूठी
मानो जग भर की खुशियों से
भर गया था हृदय उसका
अब हो रहा सौदंर्यीकरण
तालाब का
भीड़ है, रोशनी है, सब है
पर एकांत नहीं
वो प्रेम नहीं ,वो स्पंदन नहीं
उसके प्रेम में उसने बंगले बनवाए
गाड़ियाँ खरीदी
खटता रहा दिन रात मशीनों की तरह
और वो सजाती रही, सँवारती रही
कभी अपना घर, कभी अपनी देह
भूल कर खुद को
और आज जब दोनों
बैठे हैं टेम्स नदी के किनारे
दो अजनबियों की तरह
सुझती नहीं प्रेम की कोई बात
जब वो दे रहा था व्याख्यान प्रेम पर
बटोर रहा था तालियाँ
हो रहा था गौरवान्वित
ठीक उसी समय
उसके वियोग में एक लड़की
रोए जा रही थी बेतहाशा
तप रहा था उसका शरीर ज्वर से
गुमसुम थी शाम से
और किसी को खबर न थी
उसे हुआ क्या है ।