फिर भी.... / प्रदीप जिलवाने
ज़रूरी नहीं
जो रामचन्दर की बेटी के साथ हुआ
मेरी बेटी के साथ भी हो।
फिर भी ....
अन्दर की पूरी कड़वाहट को घोलकर
एक बड़े से थूक के गोले में बदलकर
मैं ज़ोर से उस दिशा में उछाल देता हूँ
जिधर से अभी-अभी यह बुरी ख़बर आई है।
ख़बर जिसमें केरोसीन है
आग है
चीख़ है
चीत्कार है
झुलसा हुआ एक चेहरा
झुके हुए कुछ सर
और झुँझलाई हुई कुछ आत्माएँ हैं।
मेरे अन्दर एक ताज़ी चिता की गंध धँसने लगी
जिसने मेरी नस-नस को फुला दिया
चिता के धुएँ के उस पार
मुझे चेहरे विकृत होते लगे
विद्रूपता की हद तक
यह धुआँ था
जो इस विकृति को जन्म दे रहा था
हाँ, धुआँ ही होगा
विकृतियों का जन्मदाता।
मैंने देखा
प्रार्थना के कुछ शब्द हवा में उठे
और ऊपर ही ऊपर उठते चले गए
बादलों के भी पार।
ईश्वर!
यह विषपायी समय
और कितना लम्बे खींचेगा
कोई पराकाष्ठा तो होगी।
कुछ मर्यादा तो होगी।
शाम को घर लौटता हूँ
कड़वाहट और उद्वेलन से भरा
संतृप्त और निराशमन।
फिर एक भरोसा जन्मता है
अपनी बेटी का खिलखिलता चेहरा देखकर
जो गर्मागर्म चाय का प्याला लिए खड़ी है सामने
चाय की महक मेरी साँसों में धँसी
चिता का गंध को मार देती है
पाता हूँ बेटी के चेहरे पर आश्वस्ति है
पिता के घर होने की
अपने घर होने की
इसी आश्वस्ति और विश्वास से भर सोचता हूँ
ज़रूरी नहीं
जो रामचन्दर की बेटी के साथ हुआ
मेरी बेटी के साथ भी हो।
फिर भी ....।