फुटपाथ / दिनेश कुमार शुक्ल
जहाँ तक नजर जाती है
नींद सोई पड़ी है
फुटपाथों के दुकूल पर
बाढ़ की बिछाई हुई
साँस लेती जिन्दा
मिट्टी की तरह
दिन भर
उफान भर चुकने के बाद
अब शान्त और उथली
हो चली है
सड़क की नदी
तटों पर
उर्वर माटी की
पर्तें बिछाकर
जा चुकी है
अन्तःसलिला हो चली है
सड़क की नदी
सड़क की नदी
अब सपनों के
अन्तहीन मैदानों में
आकाश की तरह
मंथर धीर और गंभीर
होकर बह रही है
स्वप्नों के पारदर्शी
जल में डूबे हुए
सोये हैं फुटपाथों पर
अनगितन आदमी
औरतें, बच्चे
दुःस्वप्न की कटीली
झाड़ियों में भी
रह-रह कर चटकते
और फूल उठते हैं
हिम्मत व उम्मीदों के गुलाब
एक बच्चा
मुस्कुराता नींद में,
और थोड़ी देर ठहरो
देखना --
अभी-अभी
महकते सपनों के
उल्लास में
पुरबहार हो उठेगी
ये जमीन फुटपाथ की
गमक उठेगा यहाँ
केतकी, गुलाब, बेला, चम्पक
का नन्दन वन
फिलहाल
सेमल के फाहों सी
उड़ती निःशब्द कविता
अपने बीज बिखेरती है
चेतना की सोती किन्तु
स्वप्न देखती, सजग उर्वर दुनियाँ में।