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बदलाव / नरेश अग्रवाल
Kavita Kosh से
अब किसी कम्पन को
उतारता नहीं हूँ अपने शरीर पर
जैसे टहनी की तरह धैर्य से भरा हुआ
अच्छी लगती हैं किताबें
इन्होंने मुझे वापस बुला लिया
पूरी एकग्रता से करता हूँ इनका अध्ययन
जैसे इन्होंने मुझे पूरा बाँध लिया अपने में
अच्छे-बुरे सारे अनुभव इनमें छिपे हैं
सभी पात्र खेलते हुए
मेरे मन की जमीन पर
और इस जिन्दगी के नाटक को
कभी बाहर से देखता हूँ, कभी भीतर से
इसी तरह से गुजर जाता है समय
अब किसी का इंतजार नहीं करता हूँ मैं ।