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बस, तुम्हारे / अमरेन्द्र

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बस, तुम्हारे लिए गीत रचता रहा
सबने ऊँगली उठाई, बहुत कुछ कहा।

मैंने राहों के कण्टक न देखे कभी
और चुभते गये वो सभी-के-सभी
मुझको अच्छा लगा जब तुम्हारे लिए
नीर आँखें के कोरों से चुपके बहा।

मेरे गीतों को लोगों ने दी गालियाँ
मन-सुमन पर गिराई बहुत बिजलियाँ
तुमसे होता अगर प्यार मुझको नहीं
आग की इस नदी पर मैं कैसे रहा !

मत डराओ मुझे तेज तलवार से
मैं तो जब भी कटा फूल की धार से
मुझको कोशी या गंगा का कुछ भय नहीं
मैं शरद की ही कुल्या में औचक दहा।